आयुर्वेद की सफलता उसके सुनियोजित और विधिवत तरीके में निहित है। बीमारी की सटीक जानकारी प्रभावी उपचार का आधार है, जबकि बीमारी की अज्ञानता अक्षम उपचार की ओर ले जाती है। आयुर्वेद में बीमारी का पता लगाना और उसका उपचार करना दो चीजों पर आधारित है – मरीज की जांच (रोगी परीक्षा), बीमारी की जांच (रोग परीक्षा)
रोगी परीक्षा या मरीज की जांच में तीन चरण होते हैं- दर्शन- देखकर जांच, स्वर्शना- छूकर जांच करना, प्रश्न- पूछताछ करके जांच करना।
बीमारी की पड़ताल तभी से शुरू हो जाती है जब मरीज सलाह लेने के लिए कमरे में घुसता है। इसके साथ ही लक्षणों, जीवनशैली, आहार और चिकित्सीय इतिहास के बारे में सवाल पूछकर जानकारी इकट्ठा की जाती है, साथ ही डॉक्टर कई और तरीके से भी ऐसे सबूत ढूंढने की कोशिश करता है जिससे बीमारी के कारणों और समय सीमा के बारे में पता चल सके। मरीज की चाल ढाल, उसके शरीर की बनावट और रूप रंग के सटीक अवलोकन से उसकी स्थिति का पता चल जाता है। इसको ही दर्शन परीक्षा कहते हैं।
स्पर्शना परीक्षा में छूकर जांच की जाती है। डॉक्टर इसमें कई कारकों का मूल्यांकन करते हैं वो भी छूकर। वह इससे शरीर का तापमान, त्वचा में सूजन, नाड़ी की जांच या अंग के बढ़ने की जांच करते हैं। छूने और ठोककर देखने का पारंपरिक चिकित्सीय तरीका स्पर्श संबंधी जांच का उदाहरण है।
किसी बीमारी की संपूर्ण तस्वीर जानने के लिए मरीज और उसके परिवार या रिश्तेदारों की विस्तारपूर्वक इकट्ठा की गई जानकारी बहुत जरूरी होती है। यह है प्रश्न परीक्षा। यह हमेशा सही होता है कि मरीज बीमारी के इतिहास से खुद को जोड़े वो भी खुद ही के शब्दों में।
दर्शन, स्वर्शन और प्रश्न को त्रिविध परीक्षा कहा जाता है,मतलब यह है कि इसमें तीन स्तर की चिकित्सीय जांच होती है। इसका बड़ा स्वरूप है अष्टाविधा परीक्षा यानि मरीज की 8 स्तरीय चिकित्सीय जांच, इसमें 8 कारक नाड़ी, मल, मूत्र, जीभ, शब्द, स्पर्श, दृक, आकृति शामिल होते हैं।
डॉक्टर से सलाह लेने के दौरान मरीज का संपूर्ण व्यवहार कई महत्वपूर्ण जानकारियां देता है। भावनात्मक स्थिति और प्रकृति, मजबूती, प्राणशक्ति, बुद्धिमत्ता और सारा व्यक्तित्व ही व्यक्ति के पहनावे, मुद्रा, बॉडी लैंग्वेज, सांस लेने की गति और यहां तक कि चाल ढाल और आचरण से निर्धारित होती है
आयुर्वेद की चिकित्सीय जांच का मुख्य लक्ष्य होता है शरीर के असंतुलित दोषों का पता लगाना जो बीमारियों का कारण होती हैं। डॉक्टर के द्वारा जो तरीके अपनाए जाते हैं उनका मकसद दोषों की गड़बड़ी का पता लगाना ही होता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो गर्म और लाल पड़ चुकी त्वचा जिसमें जलन का अहसास, बुखार, अपच की समस्या या मूत्र संक्रमण जैसे लक्षण दिखाई दें तो यह पित्त का असंतुलन दिखाता है।रूखी सूखी,कठोर त्वचा जो ठंडी पड़ी हो यह वात के असंतुलन को दिखाता है। तरल में रुकावट, सूजन, नम त्वचा, आंखों में पानी और छाती में जकड़न हो तो इसका संबंध कफ से होता है।
इन जांच के बाद हुई रोगों की पहचान, साथ ही बीमारी की जड़ की समझ होने से बीमारी के सटीक इलाज होने में मदद मिलती है।